वक्त
कपड़ों से तन को
ढका जाता है
ना कि दिखाया जाता,
मगर आजकल यह
आलम है सरेआम
जिस्म की नुमाइश हो जाता ।
कोई कहता वक्त का तकाजा
कोई बदलाव का नारा लगाता,
फिर भी कुछ हासिल न होता
इज्जत अपना ही गवा बैठता ।
ऐसा वक्त और बदलाव
किस काम का बताओ जो
हमारी हस्ती को खाक में मिलाते ,
सिर पर कफ़न बांध कर निकलो
हावी न होने दो हम पर किसीको
चाहे कोई हमारे साथ चले न चले।