लौकिक से अलौकिक तक!
मनुष्य की चाहत,
जीवन कायम रखने तक नहीं रहती सीमित,
उससे भी आगे,
कुछ कर गुजरने को रहती है ,
सदैव लालायित,
जन्म से ही वह रहना सीखता है ,
परिजनों के संग,
जानने लगता है,
रहने के तौर तरीके,
जीने के सलीके,
करने लगता है
वह अच्छे बुरे की पहचान,
होने लगता है उसे,
भय और अभय का ज्ञान!
यह सब वह घर की प्रथम पाठशाला में पढता है,
स्कूली शिक्षा का दौर तो अभी शुरु होना होता है,
जहाँ उसे देखने को मिलते हैं अपने हम उम्र,
जो उसी की तरह नयी दुनिया से सामना करते हैं,
झिझकते हैं, रुठते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, बेचैन होते हैं,
रोते हैं बिलखते हैं चिखते हैं चिल्लाते हैं बिलबिल्लाते हैं,
अपनों को निहारते हैं,
और रोते हुए थकहार कर सो जाते हैं!
ये वह मासूम हैं जो लौकिक अलौकिक का भेद,
नहीं कर पाते!
समय तो गतिमान है किसके लिए रुकता है,
तो ये नन्हे मुन्हें धीरे धीरे आगे बढ़ते जाते हैं,
बालपन से यौवन की दहलीज पर कदम बढाते हैं,
और ये वह उम्र जिसमें जिस्म का लहू भी जोर दिखाता है,
हर छोटी बडी बात पर खून खौल जाता है,
लडना झगडना साधारण सा अहसास हो,
अपनी श्रेष्ठता साबित करने का उपक्रम हो,
फिर भी स्वयं को लौकिक और अलौकिक,
समझने का प्रयास सामान्य तह: नहीं करता!
हां हो सकता है,
कोई साधु संत अपनी सिद्धियों से,
कुछ चमत्कारी क्रियाओं का प्रदर्शन कर दिखाए,
पर फिर भी वह स्वयं को,
स्वयंभू मानने का आग्रह नहीं करता!
गृहस्थ जीवन के सफर में चल कर,
दैनिक जीवन की आवश्यकताओं में तप कर,
अपनी जिम्मेदारियों के निर्वाहन में,
कहाँ उसे लौकिक और अलौकिक का,
बोध हो पाता है,
वह तो जी जी के मरता है,
और मर मर के जी पाता है!
समय चक्र चलता रहता है,
फिर कब बुढ़ा पे का बुलावा आता है,
अभास ही कहाँ होता है,
सारी जिम्मेदारियों को निभाते हुए,
निढाल हो जाता है,
खो जाता है कभी कभी ,
अपनी पुरानी यादों में,
खुशियों के पलों की स्मृतियों में,
या फिर खाए हुए जख्मों की अनुभूतियों में,
ऐसे में उसे लौकिक और अलौकिक का भास ,
हो ही नहीं पाता!
वह तो बस,
सांसारिक यात्रा का एक पात्र बनकर,
ढलते जीवन की सांझ का इंतजार करते हुए,
अपनी भावी पीढ़ी के सफल जीवन की,
मनोकामनाओं के साथ प्रभु भक्ति में,
रहे सहे पलों को गुजारने में तल्लीन हो जाता है,,
तो फिर ईश्वर की अनुभूति से परिपूर्ण होने का एहसास,
कहाँ जुटा पाता है!
यह सौभाग्य तो उन्हें ही नसीब होगा,
जो अपने दैन्य दिव्य जीवन दर्शन से युक्त हो कर,
दिव्य भव्य जीवन शैली का आंनद लेकर,
अपने भक्तों की जय जय कार से अभिभूत होकर,
सर्वशक्तिमान और अजेय मुद्रा में,
दीन हीन प्रजा के,
अन्नदाता के रुप प्रतिष्ठापित हो जाए!
वह कह सकता है ,
उसमें देवत्व का तत्व विद्यमान है,
वह अलौकिक शक्तियों का स्वामी है,
वह ब्रह्म है,
या उसमें ब्रह्म है,
ऐतैव, अहम ब्रह्मास्मी !
हां, शायद उसके प्रारब्ध में यह शामिल हो,
इसलिए वह लौकिक और अलौकिक का ,
भेद जानता है या कर पाता है!
तो इसमें किसी का क्या जाता है।