लेखक डॉ अरुण कुमार शास्त्री
लेखक डॉ अरुण कुमार शास्त्री
विषय – ग्लानि
शीर्षक – आत्मबोध
विधा – स्वछंद अतुकांत काव्य
ग्लानि से धुलते नहीं कभी पाप अनुराग ।
आत्मबोध जिनको हुआ कटे उन्ही के ताप ।
कटे उन्ही के ताप के भईया दुख तो होगा ।
फिर न करूंगा ऐसा मन से जो प्रण लेगा ।
दुर्घटना से देर भली ये है स्वर्णिम वाक्य ।
रखे जो जन ध्यान ये पीछे फिर न रोए ।
ग्लानि से मन आत्मा साफ सदा हो जाती ।
पुनरावृति कर्म की अनुज्ञप्ति भी हो जाती ।
ग्लानि ऐसा भाव है जो मन को कर दे साफ ।
पाप दंश का भी मनुज ये देता है प्रतिमान ।
चार कर्म हैं मानुष जीवन के रखना तुम ये याद ।
धर्म अर्थ और काम संग मिलें तृप्ति समभाव ।
तेरा मेरा जो करे उसको कोई न चाहे ।
चारों धाम चाहे वो फिरे लेकिन शांति न पावे ।
मानव सेवा धर्म का सब से बड़ा है पर्व ।
इसको जो अपनाएगा सो ही प्रसिद्धि पाएगा ।
माला फेर – फेर जगत हो जाता है पागल ।
मन से दुविधा जाए न ऐसा है ये काला बादल ।
ग्लानि से धुलते नहीं कभी पाप अनुराग ।
आत्मबोध जिनको हुआ कटे उन्ही के ताप ।
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