#लघु_व्यंग्य-
#लघु_व्यंग्य-
■ दौरे-हाज़िर, वक़्त नाज़िर….!
★ हाल विकराल, लोग बेहाल
【प्रणय प्रभात】
“चोर-चोर मौसेरे भाई”, “चोर के भाई गिरहकट”, “हमाम में सारे नंगे” और ”सैंया भए कोतवाल तो डर काहे का” वाली पुरानी कहावतें सौ फ़ीसदी सही व सटीक। जिन पर वर्तमान हमेशा लगाता आया है अपनी मुहर। आज भी लगा रहा है हर बार की तरह। यह है “स्वाधीनता” के नाम पर उद्दंडता यानि “स्वच्छंदता” का “अमृत-काल।” जो “कालकूट विष” से भी अधिक है घातक और मारक। ऐसे में क्या लिखे बिचारा तारक? वजह है सारे विधान चोर-बदमाशों की जगह केवल शरीफ़ों पर लागू। इससे भी बड़ा कारण है समाज-कंटकों व दुर्जनों का संगठित और सज्जनों का असंगठित होना। तभी तो पड़ रहा है मानवता और उसके मूल्यों को रोना।
कोई पूछे तो बेहिचक बता देना कि बीते 75 साल में सियासत ने सिर्फ़ चेहरे बदले। चाल और चरित्र आज भी वही। चील के नीड़ में चंदन की कोई जगह नहीं। वही मतलब “फिरंगियों” वाला ढर्रा। “फूट डालो और राज करो।” “अमन” के नाम पर “दमन” के दशकों पुराने हथकंडे। वो भी “मंडे टू संडे”, 24X7, आकाओं के संरक्षण में। “नीचों के नाथ, बेशर्मों और बेहयाओं के साथ। खेतों में फ़सलें बर्बाद तो धरातल पर नस्लें बर्बाद। चोंच डाले बैठे हैं हर पेड़ के छेद में। भविष्य के परिंदे सैयादों की क़ैद में। कैसे न कैसे मिल जाए थोड़ा सा हलवा। इसी चाह में कल तक सहलाते थे, अब चाट रहे हैं तलवा।
एक “अली बाबा”, एक हज़ार चोर, गली-गली में मुरदारों की ज़िंदाबाद का शोर। जितने उजले कपड़े, उतने काले लफड़े। जीभ के दुश्मन दांत, पेट की बैरी आंत। सूप को ज्ञान देती छलनी, न्याय की दाल कहाँ से गलनी? गिरोह बनने पर आमादा संगठन और लुटेरे बनने पर उतारू चंगू-मंगू टाइप चिरकुट। गली वालों को लात, चौखट वालों को बिस्कुट। लाखों नंदन, फोकट में घिसते चंदन और करते धूर्तों का वंदन।
रामराज्य का डंका और मुल्क़ बन रहा लंका। हर “आपदा में अवसर की तलाश”, गिद्धों की दृष्टि में अधमरे भी लाश। वीर शिवा और राणा की बातें और आततायी अफ़ज़ल सी घातें। रंगा-बिल्लाओं को कथित ध्रुव-प्रहलादों और श्रवण कुमारों का समर्थन। लोकमर्यादा के आंगन में बेशर्मी का नर्तन। बेबस नर रूपी वाहन पर काले कुबेरों की सवारी, सांप-नेवलों में ग़ज़ब की यारी। राम नाम के घाट पर संतजनों में फूट और सत्ता सुंदरी के चरणचट्टों को “खुली लूट की छूट।” लोक-तंत्र के थिएटर में, राजतंत्र के पर्दे पर “ढोक-तंत्र”, “ठोक-तंत्र” और “शोक-तंत्र” के “मैटिनी-शो।” अब राम जी ही जानें कि आगे “बेहतर” की आड़ में इससे “बदतर” और क्या हो? फ़िलहाल मुझ बेचारे का एक ही चारा। खरी बोल, पोल खोल…। नारायण, नारायण।
त्राहिमाम, त्राहिमाम, त्राहिमाम।।