लघु कविता…..”नदी”
मैंने संज्ञा दी तुम्हें एक दिन नदी की और अपने को समझा किनारा मेरी कल्पना
तुम नदी बन गई और चली गई किनारे को छोड़कर दूर बहुत दूर। मैं जकड़ा रहा गया अपने आस पास उगी झाड़ियों में बहुत कोशिश की बहूँ तुम्हारे साथ लेकिन किनारा टूटता है बह नहीं सकता नदी के साथ -साथ।।