#लघुकथा
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■ दान की बछिया…
【प्रणय प्रभात】
लाला मूलचंद का सेवक हरिया भागा भागा आया। बताने लगा कि फेक्ट्री के पीछे की ख़ाली ज़मीन पर लगे सारे कद्दू पक गए हैं। अधिकांशतः सड़ने की स्थिति में हैं। अब उनका क्या किया जाए? उदार हृदय लालाजी का जवाब था। बीते साल की सूची निकालो और एक-एक कर सारे बाँट आओ। जिनकी हालत ज़्यादा खराब है, उनका भोग मवेशियों को लगाओ।
सेवक तत्काल लग गया काम पर। सवाल आख़िर पुण्य प्राप्ति का जो था। सेवको को यह भी पता था कि देश में दान की बछिया के दांत नहीं गिने जाते। उन्हें यह भी पता था कि मुफ्तखोरी के दौर में पके कद्दू भी कद्दावर होंगे और घर-घर मे हाथों-हाथ लिए जाएंगे। गुज़रे साल की तरह।।
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)
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