#लघुकथा / #सबक़
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■ छोटा झूठ : बड़ा सबक़
【प्रणय प्रभात】
सुनो! इस महीने अपनी ज़रूरत के हिसाब से पैसों का इंतज़ाम ख़ुद कर लेना। तन्ख्वाह शायद ही मिलेगी इस बार। महेश बाबू ने मोबाइल पर वीडियो गेम खेलते अपने सपूत अक्षय से कहा। अक्षय ने एक क्षण को आँखें पिता की ओर उठाईं और फिर गेम में उलझ गया। रात सोने से पहले याद आया कि मोबाइल का पैक ख़त्म होने को है। स्कूटी में पैट्रोल पहले से रिज़र्व में चल रहा था। मजबूरी में इरादा किया अगले दिन दोस्तों से मदद माँगने का।
दूसरे दिन सुबह से देर शाम तक एक-एक दोस्त के पास गया। कॉल किए लेकिन मोबाइल रिचार्ज कराने लायक़ पैसों का भी जुगाड़ नहीं हो सका। स्कूटी बिना तेल आँगन में पहले ही खड़ी हो चुकी थी। अब अक्षय मन ही मन अपने दोस्तों को गाली देने में जुटा था। बड़ी-बड़ी हाँकने वाले यार दोस्त तो दूर उनके कॉल तक गायब थे।
उधर रविवार की छुट्टी की वजह से घर में ही पुरानी सी कुर्सी पर बैठे महेश बाबू अपने बिगड़ैल राजकुमार की दशा को देख राहत में थे। शायद वे एक छोटे से झूठ की मदद से आज उसे ज़िन्दगी का बड़ा सबक़ दे पाने में कामयाब रहे थे। अक्षय अब पबज़ी पर नक़ली दुश्मनों के बजाय असली दुश्मन अपने दोस्तों से जूझ रहा था। साथ ही अपने आप से भी….।।
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपूर (मध्यप्रदेश)
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