लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो
लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो
शायद फिर इस जनम में मुलाक़ात हो न हो
लग जा गले से …
उल्फ़त में हमने आपकी सब कुछ भुला दिया
जब देखे आँसू आपके ख़ुद को रुला दिया
ऐसी मोहब्बतों के फिर दिन-रात हो न हो
शायद फिर इस जनम में मुलाक़ात हो न हो
चलते रहें न हम रुके हाथों में हाथ हो
कुछ भी न हो भले मगर इक तेरा साथ हो
नज़दीकियों की बाद में सौग़ात हो न हो
शायद फिर इस जनम में मुलाक़ात हो न हो
-राजा मेहदी अली ख़ान साहब और जॉनी अहमद ‘क़ैस’