लकवा
लकवा
“मम्मी, डॉक्टर लोग तो अक्सर कहते रहते हैं कि जो लोग नियमित रूप से शारीरिक श्रम, व्यायाम और योगा वगैरह करते हैं, उन्हें कभी लकवा नहीं मारता। फिर पापा… वे तो ये सब करते थे फिर भी…?”
“बेटा तुम्हारी बात एकदम सही है। तुम्हारे पापा रोज योगा करते थे। मॉर्निंग वॉक, इवनिंग वॉक भी करते थे। रोज साइकिल से ऑफिस जाते-आते थे, फिर भी उन्हें लकवा मार गया। जानना चाहते हो क्यों ?”
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“क्योंकि वे एक सहृदय इंसान थे। एक आदर्श पति, जिम्मेदार पुत्र और बेहतरीन पिता थे। क्या कुछ नहीं किया उन्होंने अपने परिवार के लिए… और हम लोगों ने क्या किया उनके लिए… तीस साल पहले जब हमारी शादी हुई थी, तब हम सभी किराए के मकान में रहते थे, जबकि आज हम इस शहर की एक अच्छी कॉलोनी में अपने खुद के घर में रह हैं। तुम्हारे दादा-दादी अपने अंतिम समय तक हमारे साथ प्रसन्नतापूर्वक रहे। उनकी सेवा-खातिर में तुम्हारे पापा ने कोई कसर नहीं छोड़ी। तुम दोनों भाई-बहनों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए उन्होंने दो-दो जगह नौकरियां कीं। और याद है वह दिन, जब तुम्हारी दीदी अपने एक सहकर्मी के साथ मंदिर में शादी करके घर आई और बोली कि “पापा, ये आपके दामाद रमेश जी हैं। मेरे ही दफ्तर में काम करते हैं। आज हमने मंदिर में शादी कर ली है।” तब देखा था तुमने अपने पापा की हालत… कई हफ्ते सो नहीं सके थे वे। छुप-छुप कर रोते थे। रही-सही कसर तुम निकालते रहते हो, बार-बार यह कहकर कि “आपने हमारे लिया किया ही क्या है अब तक ?”
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“बेटा, याद रखना हमेशा लकवा शरीर को नहीं मारता, बल्कि मस्तिष्क को मारता है। जब अपने ही लोग दिल को चोट पहुंचाते है, तब आदमी असहाय महसूस करता है। खुद को पैरालाइज्ड समझने लगता है। जीवन निरर्थक लगने लगता है।”
“मम्मी, आप एकदम सही कह रही हैं। पापा ने पूरा जीवन लगा दिया हमें संवारने में और हमने… मां, सॉरी… मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि मैं अपने पापा से भी बेहतर पुत्र बनकर दिखाऊंगा।” बेटा मम्मी के दोनों हाथों को अपने हाथ में लेकर बोला।
मां की आंखें नम थीं, हॉस्पिटल के बेड पर पड़े पापा की आंखों से भी आंसू की बूंदें टपक रही थीं।
– डॉ प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़