रेत घड़ी / मुसाफ़िर बैठा
कभी रेत को एक बर्तन से चुटकी चुटकी
ऐसे रिसने की माफिक
गिराया जाता था दूजे बर्तन में
कि दिन रात को निर्धारित करने का
एक समयमान निकल आए
एक घड़े के रीतने और दूसरे के भरने से
घड़ी बन
बचपन में मेरे
मेरा फूस की छप्पर वाला घर भी
बनता था घड़ी
छप्पर पर पड़ी सूरज की रौशनी की बदौलत
उसकी ओरियानी से बनती थी छाया आंगन में
इस छाया की एक रेखा से ही बादलहीन सुबह में
तय होता था मेरा स्कूल जाने का समय
कोई ढाई मील की दूरी घर से
अपने कच्चे पैरों पर तय कर
पकड़ता था स्कूल बस मैं
और फिर कोई आठ नौ किलोमीटर लांघ
पहुंचता था अपने स्कूल
घर से स्कूल जाने और लौटने के क्रम में
कम से कम चार घंटे का समय
व्यर्थ ही रीत जाना तय होता था हर दिन
रेत घड़ी जितना सटीक समय
भले ही न निकाल पाती थी मेरी वह छाया–घड़ी
मगर पारिवारिक आर्थिक फटेहाली के
उन छुटपन दिनों में
बिना हर्रे और फिटकरी लगे
समय से स्कूल पहुंच पाना मेरा
रंग चोखा हो जाना होता था
जीवन की हमारी हर घड़ी भले ही हो अनिश्चित
पर चलना होता है उसे हर हमेशा ही
और किसी न किसी घड़ी के सहारे ही
यह सहारे की घड़ी
खुद ब खुद रूपाकार ले लेती है
रेत घड़ी सी।