राह का पत्थर
नफरतो का दौर वो ले आये
बने फिरते है क्यों अनजाने
कभी झांक कर देखे गिरेबां अपना
मिलेंगे बहुत से अफसाने
खुदगर्जी का आलम उनको
इस कदर नशा सा कर गया
अपने आपको ही वो
भूलते से जा रहे है
मंजिल शायद मिल भी जाय
एक दिन , मुमकिन है मगर
जिन्हें छोड़ा था राह के
रोड़े का पत्थर समझ
एक दिन कब्र पर वही
तख़्त बन काम आयेंगे