रावण का साक्षात्कार(व्यंग्य)
रावण का साक्षात्कार??
दशहरा पर मिल गया,
रावण मैदान में।
डरते हुए पूछा मैने,
कैसा लग रहा इस हाल में।
रावण बोला पश्चाताप है मुझे, आज तकविभीषण जिंदा है।
उसी से प्रतिशोध लेने,
रावण हर साल जलता है।
ऐसा भेदी जब तक रहेगा,
कितना ही विकास होसमाज मिटता है।
जिसने भाई को नहीं बकसा,
इन्सान तुझे क्या बकसेगा।
लोभ लालच की खतर,
राक्षसी पैंतरा बदलेगा।
मैने कहा यह तुम्हारी चाल,
इन्सान जान चुका है।
समझौता के लाभ हानी,
अच्छी तरह पहचान चुका है।
रावण-हा हा हा हा हा,
इन्सान अपनी गलती स्वीकारो ।
राम के हाथ मरने से मिलती, हैमुक्ति और भक्ति यह भी जानो।
पर तुम्हे विश्वास ही नही,
रावण बध की नौटंकी करते हो।
कथा, कहानी, पूजा तक तो ठीक,
पुतला, पटाखें जला वर्बादी करतहाे।
नही नही विजय का जश्न है,
आस्था और श्रद्धा का प्रश्न है।
हूंँ, इसे अंधी श्रद्धा कहते है,
हमारी संस्कृति की नकल है।
मुझसे रहा नहीं गया,बोला,
तुम्हारी ऐठ अभी बाकी है।
रावण चिल्लाया, चुप,
तू इंसान नही राक्षस ही है।
इन्सान के वेष मे शैतान है।
मैे तो एक बार साधू बना,
पर नारी सतित्व पूजता रहा।
तू तो साधू बन अयाशी करता,
अपनो का ही शोषण कर रहा।
याद कर राम को भी राजनीति सिखाई,
तू तो नदान है अभी ,क्या जाने पीर पराई।
पुलते जलाने से नही कोई फायदा,
अन्दर के दुर्गुण जला बचाना चाहे अगर मानवता।
मैं निरूत्तर कुछ कह नही पाया,
मानव होकर भी शर्माया।
बक्त हो चला था पुतला दहन का,
विचारों में खोया घर चला आया।
राजेश कौरव “सुमित्र “