रात बदरिया घिर-घिर आए….
रात बदरिया घिर – घिर आए।
पास न कोई दिल घबराए।
बागी हुआ निगोड़ा मौसम,
आ धमकाए लाज न आए।
उफ ! कैसी मनहूस घड़ी है,
बात – बात पर जी अकुलाए।
बेढब चालें चलती दुनिया,
बिना बात ही बात बनाए।
बुझी – बुझी सी लगे चाँदनी,
करके इंगित पास बुलाए।
किस गम में डूबा है चंदा,
फिर-फिर आए फिर-फिर जाए।
विरह – भुजंगम टले न टाले,
बैठा भीतर घात लगाए।
बैन रुँधे हैं नैन पिपासित,
रैन न जाए चैन न आए।
क्या – क्या और देखना बाकी,
‘सीमा’ गम की कौन बताए।
– सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)
“मनके मेरे मन के” से