“राखी का तोहफा”
“राखी का तोहफा”
“भाई इस बार मैं रक्षा बंधन पर सोने के झुमके लूंगी”। कविता ने अपने भाई गिरीश से कहा। इस पर गिरीश कुछ नहीं बोला, बस हां में सर हिला दिया। वहीं खड़ी गिरीश की पत्नी ऋतु गुस्से में अंदर चली गई। “जब देखो तब कोई न कोई डिमांड करती है”।
ऋतु मन ही मन बड़बड़ा रही थी। इतने में गिरीश वहां आ गया।
” क्या हुआ ऋतु?” तुम इतने गुस्से में क्यों हो? गिरीश ने पूछा। “मुझसे क्यों पूछ रहे हो”? “अपनी लाडली बहन से पूछो न”। हर वक्त कुछ न कुछ मांगती रहती है। “अरे ऋतु, वो तो छोटी है”। “उसका हक है”। गिरीश ने समझाते हुए कहा। “लेकिन अभी तो आपका काम नहीं चल रहा है, फिर कहां से लाओगे झुमके?”
ऋतु और गिरीश की ये बात कविता ने सुन ली जो भाई के कमरे से कोई मैगजीन लेने आई थी पढ़ने के लिए। ये सब सुनकर कविता कुछ नहीं बोली, बस चुपचाप वहां से चली गई।
दूसरे कमरे में जाकर सोचने लगी कि मुझे किसी ने कुछ नहीं बताया। मां ने भी नहीं कहा कभी इस बारे में जबकि रोज़ बात होती है।
कविता सोचते सोचते सो गई थी कि तभी मां ने आवाज़ दी। “कविता, बिना खाए पिए ही सो गई”। “चल उठ, खाना खा ले”। मां को नहीं बताया कविता ने, जो भी सुना था भाई और भाभी की बातें। उठके मुंह हाथ धोकर खाने बैठ गई जैसे उसने कोई बात नहीं सुनी है।
खाना खाते समय सब लोग हंसी मजाक कर रहे थे। मां और गिरीश बचपन की बातें याद करके हंसने लगे। तब तक पिताजी आइसक्रीम लेकर आ गए। फिर सबने मिलकर आइसक्रीम खाई और उसके बाद सब उठकर हॉल में आ गए।
अगले दिन सुबह जल्दी उठना था क्योंकि राखी बांधनी थी इसलिए सब थोड़ी देर हंसी मज़ाक करने के बाद अपने कमरे में चले गए। कविता भी सोने चली गई। नींद तो नहीं आ रही थी उसे, बस करवटें बदल रही थी। धीरे धीरे उसकी आंखें बन्द होने लगी। पता नहीं कब उसे नींद आ गई।
सुबह पूरा घर चहक रहा था। बच्चे भी इधर से उधर कुछ न कुछ हाथ में लेकर जाते हुए नजर आ रहे थे। खुशी की लहर थी सब में। सब लोग नहा धोकर, पूजा करके राखी बंधवाने का इंतजार करने लगे। पिताजी की कोई बहन नहीं थी इसलिए वो कविता से ही राखी बंधवाते थे हमेशा। ऋतु मायके चली गई थी। कविता भी आरती की थाली लेकर बैठ गई।
पिताजी को राखी बांधने के बाद कविता ने गिरीश को भी राखी बांधी और आरती करके मिठाई खिलाई। “कविता, इस बार झुमके नहीं दे सकता पर हां अगली बार पक्का, ओके”। गिरीश ने कहा तो कविता बोली, “अरे, नहीं भाई मैं तो मजाक कर रही थी “। झुमके कहां पहनती हूं मैं” ?
पिताजी हर बार राखी मे कविता को 5000 रुपए देते थे। इस बार भी दिए। कविता ने पैसे रख लिए। शाम को कविता के पति ध्रुव उसको लेने के लिए आ गए। कविता सबसे मिलकर ध्रुव के साथ चली गई।
कुछ दिन बाद गिरीश से मिलने कोई आया घर पर। मगर गिरीश ने उसको पहचाना नहीं। “जी नमस्ते, मेरा नाम मोहन है”।
“हां जी, बताइए” गिरीश ने कहा। उस व्यक्ति ने बताया कि वो इंश्योरेंस कंपनी से है और उसको 5 लाख रुपए देने आया है।
“पर मैने तो कभी इंश्योरेंस नहीं करवाई”। गिरीश ने कहा।
इस पर उस व्यक्ति ने बताया कि आपके भाई साहब ने अपना बीमा करवाया था। अब उनका देहांत हो गया है तो नॉमिनी आप हो इसलिए ये पैसे आपको ही मिलेंगे। गिरीश बड़ी हैरानी से उस आदमी को देख रहा था। उस आदमी ने गिरीश को पैसे दिए और एक कागज़ पर उसके दस्तखत लेकर वहां से चला गया।
गिरीश मन ही मन सोच रहा था कि इन पैसों से अपना बिजनेस शुरू करूगा। उधर कविता बहुत खुश थी कि भाई की मुस्कुराहट वापस आ गई तो मुझे अपना राखी का तोहफा मिल गया। किसी को ये कभी भी पता नहीं चला कि पैसे कविता ने दिए थे।