ये मेरा गांव है
वो गोबर की लीपी
ठंडी झोंपड़ी के मजे
छत पर जिसकी
थे खपरैल सजे।
गइयों का शुद्ध दूध
छाछ दही खाना
बैलगाड़ी की घंटियों का
मीठा गुनगुनाना
वो खुली-खुली सी खुशियाँ,
खलिहानों का खिलखिलाना,
ताजी गाजर व मूली
उखाड़ धो कर खाना।
कुंइया के पानी में
छक कर नहाना।
फिर अम्मा के हाथों की
चूल्हे की पकी दाल रोटी खाना।
धूल धुसरित नौनिहालों के
ये खिलते से चेहरे,
न ध्वनि न वायु प्रदूषण के यहाँ घेरे।
सदा प्राणवायु बहती जहाँ ताजी-ताजी,
जो भी आता गाँव दिल से हो जाता राजी।
एक घर की बेटी थी पूरे गांव की बिटिया,
आई उस पर आंच तो उड़े गाँव की निंदिया।
साथ हंसते साथ रोते संग हर त्योहार था मनता
एक घर में शोक तो कहीं चूल्हा न जलता।
अंबुआ औ नीम तले पड़ी मूंजों की खटिया,
खुशबू दे सौंधी-सौंधी मेरे गांव की मिटिया।
पड़ते ही आती थी यहाँ प्यारी सी निंदिया,
ये हुआ करती थी हमारी सुहानी सी दुनिया।
आज मेरा गांव कैसा उजड़ा-सा गमगीन है
नगर को पलायन कर गया हर ग्रामीण है।
रंजना माथुर
दिनांक 24/04/2018
जयपुर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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