ये मात्र लेखनी नहीं
ये मात्र लेखनी नहीं
एक तुला है न्याय की ये मात्र लेखनी नहीं
अपने और पराये को कभी भी देखती नहीं
युगों युगों से बनती आई सत्य की आवाज़ ये
लिखते समय सत्य जो जरा भी झेंपती नहीं
वो कलम नहीं जिसका लेख ही मुखर न हो
दुसरो की वेदनाओं पर कोई नज़र न हो
मुश्किलों के सामने जो पीछे खींच ले कदम
व्यर्थ है वो बात जिसका दूर तक असर न हो
जो कलम न कर सके बेबसों की पैरवी
अनीतियों पे जिसका ये खून खोलता नहीं
दासी बनके जो , रोज महलो की फिकर करे
ऐसी लेखनी का मुख , सत्य बोलता नहीं
सुन्दर सिंह
29.11.2016