ये कैसा घर है. . . .
ये कैसा घर है ….
ये कैसा घर है
जहां सब बेघर रहते हैं
दो वक्त की रोटी
उजालों की आस
हर दिन एक सा
और एक सी प्यास
चेहरे की लकीरों में
सदियों की थकन
ये बाशिंदे
अपनी आँखों में सदा
इक उदास शहर लिए रहते हैं
ये कैसा घर है
जहां सब बेघर रहते हैं
उजालों की आस में
ज़िन्दगी रीत जाती है
रेंगते रेंगते फुटपाथ पर
ज़िन्दगी बीत जाती है
बेरहम सड़क है
भूख की तड़प है
हर मौसम एक सा है
न रात की चिंता है
न सहर का डर है
खुशियों के शानों पर
यहां अश्क ही बहते हैं
ये कैसा घर है
जहां सब बेघर रहते हैं
सुशील सरना/12-1-24