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11 Nov 2016 · 1 min read

यादों को उनकी दिल से मिटाने चली हूँ

फिर से मोहब्बत की बस्ती बसाने चली हूँ,
यादों को उनकी दिल से मिटाने चली हूँ।

जब अकेली थी तब बड़ी खुश रहती थी,
अब फिर से वो ही जिंदगी बिताने चली हूँ।

बन कर सर्द हवा का झौंका आया था वो,
सोचकर यही उस बेवफा को भुलाने चली हूँ।

छोटी छोटी बातों पर बेवजह मुस्कुराकर,
उसके दिए जख्मों को अब छिपाने चली हूँ।

बंद कर लिए मैंने दिल के खिड़की दरवाजे,
दिल को अपने कुछ यूँ पत्थर बनाने चली हूँ।

ये ज़माने वाले भी गुनगुनाते रहें मेरे दर्द को,
दर्द को अपने सुलक्षणा से लिखवाने चली हूँ।

©® डॉ सुलक्षणा अहलावत

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