यह सादगी ये नमी ये मासूमियत कुछ तो है
तेरे लहजे पर यह कोरी किताब कुछ तो है
यह सादगी ये नमी ये मासूमियत कुछ तो है ।
जब से तुझे देखा बाकी दुनिया एक तरफ ;
तुझे आंख भरके देखने की तलब कुछ तो है।।
जो रास्ता कभी मुकम्मल ही नहीं हो सकता ,
उस रास्ते की ओर देखने की जिद कुछ तो है ।
कहना चाहता हूं मैं तुझसे बहुत कुछ लेकिन ,
तेरे छोड़ के जाने का अक्सर डर कुछ तो है ।।
कोई रास्ता मकबूलिअत तक ना पहुंचा भले,
लेकिन रास्ते में चलते रहने का दर्द ए सर तो है ।
मैं सब कुछ छोड़ कर तेरे पीछे आ भी जाता ,
मुझे पीछे लौटना होता है मेरा घर भी तो है ।
✍️कवि दीपक सरल