#यह रंग कच्चा लगता है
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★ #यह रंग कच्चा लगता है ★
ज्वार नहीं सेवार नहीं
जो जल में पनपता बहता है
मैं वो दीपक सूरज के पलटने तक
जो तूफानों में जलता है
ज्वार नहीं सेवार नहीं . . .
आज ही के दिन बदला था
सत्ताधीशों की चमड़ी का रंग
सुर स्वर लौट रहे वही
यह रंग कच्चा-कच्चा लगता है
ज्वार नहीं सेवार नहीं . . .
माँ भारती की बांहें कटने पर
सजता-धजता हर्षित
कपूत धूर्त पाखंडी अपराधी
निर्बुद्धि बच्चा लगता है
ज्वार नहीं सेवार नहीं . . .
वो घर वो गलियां और नगर
सब छूट गए मुझसे
मदारी को लेकिन पान में
चूना कम बहुतेरा कत्था लगता है
ज्वार नहीं सेवार नहीं . . .
स्मृतिपाखी लौट-लौट जाता
उसी वन उपवन बगिया फुलवारी में
धर्म बचा लिया किंतु
दिल वहीं कहीं रखा लगता है
ज्वार नहीं सेवार नहीं . . .
तिथि दिनांक मुहूर्त पहर
पल छिन घड़ियां सब छूटे
आधी रात तिथिपत्रकसंशोधन
पागलपन-सा लगता है
ज्वार नहीं सेवार नहीं . . .
अंधा कानून असहाय भी हो कभी
कभी-कभी अच्छा लगता है
रंगेसियारों को पालतू कटखना
श्वान ही सच्चा लगता है
ज्वार नहीं सेवार नहीं . . .
नींद का नयनों से अलगाव
करवटें बदलना रात भर
पिछले जनमों की भूलचूक
इस जनम में धक्का लगता है
ज्वार नहीं सेवार नहीं . . .
इक प्रश्न कन्नी काट गया
उत्तर की तर्कहीनता भांपकर
सपनों के माथे मढ़ना मूढ़ता
बहुत-बहुत भद्दा लगता है
ज्वार नहीं सेवार नहीं . . .
कहें तो कहें पीर किससे
अपने अपनों के बिछुड़ने की
ऊंचे महलों को तो जैसे
शिखर कंगूरा ढहता लगता है
ज्वार नहीं सेवार नहीं . . .
सत्यविजय असत्यपराजित
शस्त्रपूजन मनाएं दशहरा
कुरेदन रिसते घावों का लेकिन
गऊहत्या-सा लगता है
ज्वार नहीं सेवार नहीं . . .
वर्ष प्रतिवर्ष भारतवर्ष
देखे है स्वप्न सुहावने
बदलते मुखड़े देख-देख
लालकोट भौचक्का लगता है
ज्वार नहीं सेवार नहीं . . .
कुछ दिन से इक मतवाला
छेड़े है इक राग नया
आँखें पीती रहतीं उसको
मनभँवरे को ठगता है
ज्वार नहीं सेवार नहीं . . .
हिंदीजनों रे ब्रह्ममुहूर्त वेला
हरि भजो रे हरि भजो
सुघड़ प्राची के मस्तक
दिव्य टीका भगवा सजता है
ज्वार नहीं सेवार नहीं . . . !
* १५-८-२०२० *
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२