मोह बंधन
मोह बंधन
बने सब संत के जैसा , लगे दुनिया भी मनभावन।
नहीं हो मोह का बंधन , तभी जीवन सरस पावन।।
हृदय में है छुपा सबके , पाप अरु द्वंद का दानव।
मोह बस स्वार्थ में पड़कर , मोक्ष से दूर है मानव।।
विमुख हो सत्य से जीवन, विरह का बन गया सावन।
नहीं हो मोह का बंधन , तभी जीवन सरस पावन।।
प्रबल झंझा झकोरों में , पड़ा रहता मनुज का मन।
सुखद सपने संजोने में , न वह समझे , है मिथ्या तन।।
सदा रहता कपट छल बस, दनुज धरकर मनुज का तन।
नहीं हो मोह का बंधन , तभी जीवन सरस पावन।।
सिखाता सत्य अनुशीलन , मोह से हो रहित जीवन।
नहीं हो वंचना हिय में , तपस्वी सम लगे हर तन।।
कराता मोक्ष का मर्दन , कलुषमय है जो अन्तर्मन।
नहीं हो मोह का बंधन, तभी जीवन सरस पावन।।
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’