मैं
ऐ ज़िन्दगी तेरे हर हुकुम पे जी गया हूँ मैं।
बस यही इक ज़ुर्म है जो कर गया हूँ मैं।।
अब इस कारागार से बाहर क्यों निकलू मेरे दोस्त।
पता चला है की किसी का हमसफ़र बन गया हूँ मैं।।
क्या कहूँ की कैसे वो रातें गुजारी थी मैंने।
जब से देखा नया सबेरा सब भूल गया हूँ मैं।।
होगा ना अब सामना हश्र के नजारों से।
क्योंकि खुदा का भी यार बन गया हु मैं।।
कभी देख नहीं पाया उसको नज़र के आईने में।
इसलिए की खुद से वो शीशा तोड़ गया हूँ मैं।।
लगता है डर की कहीं दूर ना हो जाओ।
क्योंकि खुद को हद से गुज़ार गया हूँ मैं।।
कैसे सुनाऊ की कहर बरपा है मेरे कूचे में।
पड़ा है जब से कदम उनका मुज़स्मा बन गया हूँ मैं।।