मैं लिखती हूँ
मैं लिखती हूँ
मैं लिखती हूँ, मन के भावों को,
दूसरों से मिले, भावों के अभावों को,
मैं लिखती हूँ, स्वार्थ में रत रिश्तों को,
स्वार्थ में लिप्त रहते हुए, खो देना फरिश्तो को,
मै लिखती हूँ, जीवन के, उतार-चढ़ाव में हारे रिश्तों को,
हार में मिले दुख रूपी, नासूर बने रिसते नातों को,
मैं लिखती हूँ, अपने दिल की, सच्ची भावनाओं को,
अधूरी छूटी, अपनों की, लालसाओं को,
मैं लिखती हूँ, अपने एकाकी, हारे मन की व्यथाओं को,
अपने आसपास घट रही, बन रही कथाओं को,
मैं लिखती हूँ, कुछ कर गुजरने की, लालसा रखने वालों को,
फिर किसी गुमनामी के, अंधेरे में खो जाने वालों को,
मैं लिखती हूँ, कथनी-करनी, एक न करने वालों को,
उनके कारण दूसरों का, बहुत कुछ खो जाने को,
मैं लिखती हूँ, और चाहती हूँ, कि मानव स्वार्थ में इतना अंधा न हो,
कि कभी खुद से नजरें मिलाने में भी शर्मिंदगी महसूस हो ।
अरविंद ताम्रकार “सपना”