मैं भी तन्हा हूँ
मैं भी तन्हा हूँ मगर
कोरे कागज़ की तन्हाई दूर करता हूँ।
अपने दर्द को कोरे कागज़ में
बयां करता हूँ
रुक जाती है धड़कने मेरी
जब भी जवां शब्दों से कागज़ को भरता हूँ
अपने ज़ख्मो को मैं इस
तरह ही ताज़ा रखता हूँ
ना जाने कितनी बार जीता हूँ
कितनी बार मरता हूँ।
जब भी तन्हा होता हूँ,
कलम पकड़ता हूँ।
पुराने ज़ख्मो को फिर ताज़ा करता हूँ
हर शब्द में दर्द भरता हूँ।
शब्दों को संजो कर उनमे
एहसास भरता हूँ।
हर बार लाल रंग से
कुछ ख़ास लिखता हूँ।
जब भी तन्हा होता हूँ
तो कोरे कागज़ को भरता हूँ।
इस तरह ही अपनी तन्हाई से
कोरे कागज़ की तन्हाई को
दूर करता हूँ।
भूपेंद्र रावत