मैं उनके मंदिर गया था / MUSAFIR BAITHA
उस दिन
मैं उनके मंदिर गया था
चाहा था अपने ईश की पूजा-अभ्यर्थना करना
मंदिर-द्वार पर ही मुझे धो दिया उन्होंने
लत्तम-जुत्तम कर अधमरा कर दिया
मेरी धुलाई का प्रसंग स्पष्ट किया-
चूहड़े-चमार कहीं के
गंदे नाली के कीड़े
गांधी ने हरिजन क्या कह दिया
दौड़े चले आए हमारी देवी माँ के यहाँ
अपनी गंदगी फैलाने
किसी के कह देने भर से
लगे हमारी तरह के हरिजन बनने का स्वप्न देखने
मुझे क्या था मालूम
कि हरि पर तो कुछेक प्रभुजन का ही अधिकार है
और इस देवी मंदिर को
ऐसे ही प्रभुजनों ने
अपनी ख़ातिर सुरक्षित कर कब्ज़ा रखा था
मेरे अंतर्मन में ईश्वर के बौनेपन का साक्षात्कार किया
और आप-ही-आप सवाल किया
फ़्लैश-बैक में कुछ टोहने टटोलने लगा
विद्या की देवी सरस्वती
धन की लक्ष्मी
हमारे तैंतीस करोड़ देव-देवियों का हुजूम
अब सौ करोड़ भारतीयों में एक देव के हिस्से
अमूमन तीन आदमी का सुरक्षा दायित्व
बल्कि विधर्मियों, ईश-उदासीनों की संख्या
को घटाकर और भी कम लोगों का
फिर भी हम रहे सदियों
विद्या वंचित अकिंचन धनहीन
क्योंकर पाता कोई हमारा
हक, हिस्सा और स्वत्व ले छीन
क्या यह एक सवाल हो सकता है
कि औरों से मुँह फेरे जो ईश्वर
समाज-सत्ता संचालकों के घर जा बैठता है
ईश्वर उनका ही परिकल्पित-मनोकामित
उनके ही गुणसूत्रों का धारक
कोई अनगढ़ अन्यमनस्क पैदावार तो नहीं
हमीं में से जो लोग
ईश्वर की सत्ता-शक्ति लौट आने के इंतज़ार में हैं
इंतज़ार की अनगिन घड़ियाँ गिनते रहें
फिर जाएँ मंदिर
पाते रहें प्रसाद ईश-प्रीत के
मैं तो अब महसूस गया हूँ
कि दरहक़ीक़त यह कमबख़्त ईश्वरीय सत्ता ही
प्रभुवर्ग की प्रभुता का सबब है
और हमारी अशक्यता, हमारे पराभव का कारक भी
अब हमें किसी गैरदुनियावी, अलौकिक
शक्ति सहायता की दरकार नहीं
किसी का इंतज़ार नहीं करना
अपने बाजुओं का ही अहरह भरोसा है ।