मेरे शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास से –
प्रिय के प्रयास पर झूठ मूठ सी रूठी हुई सी, लाजवंती के गालों की भांति गुलाबी शाम। महादेव शिलाखंड पर बैठे थे उन्होंने तनिक सा मुड़ कर पीछे की ओर देखा थोड़ी दूरी पर वृक्ष के तने पर टेक लगाकर ‘सुंदरी’ खड़ी थी। फिर अचानक वह नृत्य करने लगी । वह अपने विषधर भुजंगिनी के समान दोनों अनावृत भुज-मृणालों को हवा में विभिन्न मुद्राओं में लहरा रही थीं। पांवों के पावेज मृदु चरणाघात के साथ मधुर ध्वनित कर रही थीं। नृत्य के साथ ही मधुर स्वर में गा रही थी, हंस रही थी, लुभा रही थी, रिझाती जा रही थी। अपनी ओर आकर्षित करने के लिए वह विभिन्न मुद्राओं में लहरा रही थी, गोरे अनावृत उन्मुख यौवन को प्रदर्शित करती हुई वह अपनी ओर आकर्षित करती जा रही थी, महादेव को। कुछ क्षणों में ही उसने महादेव के गले को लता-स्वरुप भुजबन्धनों से घेर लिया। महादेव अविचल अविनाशी, निष्काम चुपचाप सब देख रहे हैं, आनंद में मंद मुस्कान ले रहे हैं। यह नवयौवना गौरा तो है नहीं? तब कौन महादेव को रिझा रही है या महादेव स्वयं ही श्रृंगार रस में लिप्त हो गये हैं!