मेरे दिल की जुबां मेरी कलम से
मेरे दिल की जुबान,मेरी कलम से…
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यह मुमकिन तो नहीं कि…
करूँ खुद को बयां शब्दों में,
लिख ना सकूंगी, एक भी लफ्ज़…
सिवाय अहसासों के।
झांकती हूँ जब- तब…
अपने गिरेबान में
खुद में ही सिमटी रहती हूँ…
जैसे हूँ मैं किसी के आगोश में।
पल पल बीतते..
यूँ ही दिन गुज़र रहे
जिंदगी आखिरी सफर में है…
अब मंजिल से मुलाक़ात में।
जिम्मेदारियों का बोझ…
जब कम हुआ कंधों पर
सोचा ” मधु” ने…
पन्नों सी सिमट जाऊँ अब मैं किताब में।
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