“मेरी कुटिया”
डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
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हम खुश हैं अपनी कुटिया में,
हमें और किसी से क्या लेना ?
दो वक्त की रोटी मिलती है,
झूठे सपनों से हमें क्या करना ?
वादे तो किये जाते थे अच्छे ही दिन आ जायेंगे,
अपना जीवन सुधरेगा दिन सबके लौट आयेंगे।
इन रोटी से हम यूँ जुड़े हुए हैं,
अब पकवानों से हमें क्या लेना ?
दो वक्त की रोटी मिलती है,
झूठे सपनों से हमें क्या करना ?
महंगाई के मार ने हमको कहीं का ना छोड़ा है
अपने भाग्य के घड़ों को सूखने से पहले तोड़ा है।
दुःख के पर्वत सर पर टूट गए,
उन्हें दूसरे के दुःख से क्या लेना ?
दो वक्त की रोटी मिलती है,
झूठे सपनों से हमें क्या करना ?
दशा ना बदली खेतों की किसान सारे बर्बाद हुए,
कर्ज के बोझ से दबकर जीवन सब बेकार हुए !
शासक को जब अनुमान नहीं है,
तब उनसे हमको फिर क्या लेना ?
दो वक्त की रोटी मिलती है,
झूठे सपनों से हमें क्या करना ?
काम नहीं ना नौकरी मिलती हम तो भटकते हैं,
झूठी बातें कह कह कर हमको ये भरमाते हैं !
कब हम लोगों की हालत सुधरेगी,
उनको इन बातों से आखिर क्या लेना ?
दो वक्त की रोटी मिलती है,
झूठे सपनों से हमें क्या करना ?
जब भूखे नंगे शासक होंगे तो देश को ये बेचेंगे,
लोग त्रस्त हो जायेंगे दौलत हमारी सब लूटेंगे !
देश बचेगा तब सारे लोग बचेंगे,
बेतुकी बेतुके नारों से हमको क्या लेना ?
दो वक्त की रोटी मिलती है,
झूठे सपनों से हमें क्या करना ?
हम खुश हैं अपनी कुटिया में,
हमें और किसी से क्या लेना?
दो वक्त की रोटी मिलती है,
झूठे सपनों से हमें क्या करना ?
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डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
साउंड हेल्थ क्लिनिक
एस ० पी ० कॉलेज रोड
दुमका