” मेरा रोग “
डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
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मन करता है मैं लिखता जाऊँ,
लोगों को कोई गीत सुनाऊँ,
मधुर रागनी के कंठों से ,
सुर सरगम का हार बनाऊँ !!
कभी प्रणय का गीत लिखूँ ,
सौंदर्य का गुणगान करूँ ,
नख -शिख वर्णन करकरके ,
प्रेमों का इजहार करूँ !!
कभी प्रकृति के वर्णन को ,
अपने गीतों में उसको ढालूँ ,
उसके सौन्दर्य बिरासत को ,
अपने हृदय में उसे बसालूँ !!
वीरों के बलिदानों को हम ,
कैसे उन्हें भुला सकते हैं ,
तब उनकी गाथा को हम ,
जीवित ही कर सकते हैं !!
सब रस है जीवन में सुंदर ,
हास्य व्यंग भी लिखते हैं ,
पर व्यंगों की बातों में हम ,
नायक खुद बन जाते हैं !!
मैं लिखता हूँ सब दिन यूंही,
यह रोग बड़ा पुराना है ,
मैं गाता हूँ अपनी धुन पर ,
सबको यह गीत सुनाना है !!
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डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
दुमका