मेरा मजहब
मैं मज़हबी हूँ मोहब्बत का
पत्थर नही इंसान को ख़ुदा कहता हूँ।
तेरी नफ़रत से मुझे डर लगता है,
क्योकि मैं तेरे खोने से बहुत डरता हूँ।।
मन्दिर-मस्जिद से वासता नही मेरा,
चर्च-गुरुद्वारे को ना मैं देखता हूँ
जहाँ खुशहाल जीवन खिलता है
वहीं मुसल्ले पर दीपक रखता हूँ।।
तू दौड़ता है फिक्रमंद होकर,
जो सामने है उसे पाने के लिए
मैं देखता हूँ उसको, तुझमें में ही,
और तुझमें ही रमा रहता हूँ।।
खोलकर तू आँखे दोनों
हाथ आगे फैलाए रहता
मैं फकीर हूँ जीवन से
फिर भी सबको मोहब्बत बाटें फिरता हूँ।।
कुछ जोड़कर तू मिट्टी कंकड़
मज़हब की नींव रखता
झूठ बोलता है उसके पाने का
मैं तो खोकर ही खुद को उसी में
खुद को पाता हूँ।।