मुस्कानों की परिभाषाएँ
०३*
बैठ कंगनियों पर
कागा मत बोल ।।
लगा रहा हूँ ध्यान, टूटता ।
मन चंचल चालाक रूठता ।
उड़ जा रे, जा औऱ कहीं तू डोल ।।
अब की बार यहाँ
मत आना ।
बुन बिरहा का ताना
बाना ।
स्वप्न पिटारी अपने घर में खोल ।।
समय सजीला बीत
रहा है।
जीवन का घट रीत
रहा है ।
छोड़ बजाना सपनों के ये ढोल ।।
गई दीवाली, रात पूस की ।
बची चदरिया बनी तूस
की ।
चढ़ा रहा क्यों नर्म रेशमी खोल ।।
बैठ कंगनियों पर कागा मत बोल ।।
@श्याम सुंदर तिवारी