मुख में रक्खा राम….
भूख पेट में जेब में कुछ मजबूरी रक्खी
जिस्म रूह के बीच हमेशा दूरी रक्खी
जला हौसला तपते सूरज में फिर भी
हँसने को इक शाम सदा सिंदूरी रक्खी
नींबू जैसा निचुड़ गया जब बदन प्रिये
हाथ पे तब जाकर उसने मजदूरी रक्खी
भटक रहा है जीव जगत में मृग जैसा
पता नहीं है उसे कहाँ कस्तूरी रक्खी
ठीक था पहले नेता बनते ही लेकिन
मुख में रक्खा राम बगल में छूरी रक्खी
मुकर गए वो बात से अपनी तब ‘संजय’
बीच सभा में जब हमने मंजूरी रक्खी