मुक्तक
तुम्हारी याद में जाना बहुत रोई हूं रात भर
सुबह हो चली है चलो तुम गागर उठा लो
मैं ढह रही हूं खुद में जर्रा ए दीवार की तरह
सुनो तुम मेरी पेशानी से होठ तो लगा लो
इस दस्त में अब जी लगता नहीं है मेरा
बाहें पकड़ मेरी, चलो तुम वहां बुला लो
~ सिद्धार्थ
२.
सखे आवाज न दो यूं मुझको
मेरे पैरों में रवायतो की जंजीरें हैं
राह में बिखरा मर्यादा का प्थर है
मैं आऊं कैसे मेरे जिस्ट में जिस्म जकड़े हैं
~ सिद्धार्थ