मुक्तक
ख्वाहिशें गुमनाम रहे लबजों से ये न हो जाहिर
इश्क की बात चले फिर दर्द कैसे न हो जहिर
डाल पे लगी फूल यक-ब-यक मुरझाता तो नहीं
बिछड़ के डाल से कुम्हलना भला कैसे न हो जहिर
हो घना अंधेरा और दिल बेजुवां मारा मरा फिरे
जुगनुओं की जरूरत फिर भला कैसे न जाहिर हो
रात को उठा के सीने पे जब हम चलें द श्त ए सहरा में
जाना ए दिल कि फिर पुर्दिल जरूरत न कैसे जाहिर हो
~ सिद्धार्थ