मुकम्मल-मोहब्बत अधूरे-ख्वाब!!
ये शब्द सिलवटें लिये यूंही
खामोश होते गर तुम
ओश की बूंदों सी
शबनमी शबाब नहीँ होती.
रखते जज्बातों को हम भी काबू में
गर तुम दिले- किरायदार नही होती..
जलती आग को देख घी का पिघलना
कुसूर नही होता हरदम..
ये वो एहसास है जो हर किसी
के लिये नही होता हमदम..
ऋतू मुखरा की भव्य भावना सी..
कुमकुम सी हो पावन..
तारीफ को तुम्हारी लब्ज़ अल्फ़ाज़
कम हो जाते तुम ऐसी मनभावन..
कभी चंचला, कभी धीर-गम्भीर,
कभी अम्बर का विस्तार हो..
कभी स्नेहयुक्त एहसास तुम्ही हो..
अब जब शब्द खुद गढ़े जा रहे
तो कुसूरवार हम अकेले क्यूं होंगे,
बहकाने में हमें कुछ कुसूर उन
सुर्ख लाल होंठो के भी रहे होंगें..
सच लिखूं तो तुम्हें देख कर
सृजन की राहें सशक्त हो रहे..
जैसे कहीं चक्कोर चाँद को
देख मंत्रमुग्ध हो रहे..
कश्मीर की ये वादियां
अब वीरानों सी लगती है..
अब बस कुछ लिखते रहना
एक रवानी सी लगती है..
छू जायंगी गर मेरी प्रेषित बातें
तुमको तो तुम जिम्मेवार होगी…
सम्हल के पढ़ना और भूल जाना की..
कुछ बातें अधूरी ही शायद पूरी तो होंगी..
–आशुतोष शुक्ला
०५/0६/२०१८
जम्मू कश्मीर