मित्रता
मित्रता वास्तव में इस शब्द ने अपने में एक विशाल भाव को ग्रहण कर रखा है और इसको निभाने वाले भी बड़े ही गहरे भाव के होते हैं। ईश्वर ने माता-पिता, दादा -दादी, नाना -नानी, सभी रिश्तों को जन्म से ही बनाकर भेजा है किन्तु मित्रता एक ऐसा रिश्ता है जिसका चयन व्यक्ति स्वयं करता है।
वास्तव में देखा जाय तो मित्र बनाएं नहीं जाते वह तो मन और हृदय के द्वारा कब अपने बन जाते हैं पता ही नहीं चलता। दो अनजाने व्यक्ति आपस में जब मिलते हैं तो वह बिल्कुल एक दूसरे से अनभिज्ञ रहते हैं किन्तु मन और विचार मिलते ही ऐसे बन जाते हैं जैसे मीन और जल । वर्तमान समय में मीन और जल जैसी गहरी मित्रता होना भी आवश्यक है आजकल समय ही कुछ ऐसा चल रहा है कि प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी कारण से दुखी रहता ही है और ऐसे समय में उसके मस्तिष्क का बोझ हल्का करने वाला कोई होता है तो वह है मित्र क्योंकि एक मित्र को ही पता रहता है कि उसके मित्र को अभी किस प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा है।
मित्र एक ऐसा व्यक्ति होता है जिसके पास हम अपने जीवन के हर सुख- दुख, प्रेम -कष्ट , हंसने रोने की सारी बातें निसन्देह कह सकते हैं और जब हम कभी दुखी होते भी हैं तो वह आंखों को पढ़कर सारी तकलीफ को जान लेता है।
अब बात आती है मित्र कैसे बनाया जाए तो इसका सीधा सा उत्तर शीशे की तरह साफ है यदि किसी व्यक्ति का स्वभाव आपके हृदय को अच्छा लगे उसकी कोई भी बात आपको नकारात्मक न लगे, उसके साथ समय व्यतीत करना आपको अच्छा लगे, उसके आने से आप फूल की तरह खिल उठते हो तो समझ जाना आपका वह मित्र बन चुका है।
यह रिश्ता बड़ा ही अनमोल होता है बस इसको संजोए रखना हर उस व्यक्ति का कर्तव्य होता है जो इसके सूत्रों में बंधा रहता है।