मिट्टी को छोड़कर जाने लगा है
मिट्टी को छोड़कर जाने लगा है
शहर में पैसा वो कमाने लगा है ।
थाम अंगुली जिसकी सीखा चलना
मां-बाप को बूढ़ा वह बताने लगा है।।
गांव की गलियों को भूल गया वह
शहर को कल्चर बताने लगा है ।
ऊंची हुई इमारत दिल छोटा हो गया
मां की रोटी भूल होटल जाने लगा है।।
शहर जाकर शहर की धुन गाने लगा है
बात-बात पर हमको यू समझाने लगा है।
अपने पांव पर इस कदर खड़ा हो गया
मां कहने लगी अब बेटा बड़ा हो गया।।
छोड़ आया गांव,अब गांव में क्या रखा है
टूटी फूटी चार दिवारी , घर बना रखा है।
अशिक्षित है लोग लेकिन संस्कार हैं जिंदा
पढ़ लिखकर संस्कार भूल जाने लगा है।।
राम की कथाएं हैं , यहां कृष्ण लीलाएं हैं,
सुकून है चैन है भाईचारा है अपनापन है।
ना जाने वह क्यों इस बात से अनजान है
शहर के रंग में जब से रंग जाने लगा है।।
बातों के महल इस तरह बनाने लगा है
हर रिश्ते की कीमत अब बताने लगा है।
शहर की भीड़ अब में गुनगुनाने लगा है
चार-दीवारी में खुशियां मनाने लगा है।।
माता-पिता भाई-बहन रिश्तेदारों को भूला
बड़ी-बड़ी पार्टियों में अब जाने लगा है ।
घर के दूध, दही, घी, माखन भूल गया
पिज़्ज़ा बर्गर चाऊमीन खाने लगा है।।
✍कवि दीपक सरल