मिटाने लगें हैं लोग
मिटने लगे हैं लोग मिटाने लगें हैं लोग
औकातअपनी ज़िद की दिखाने लगें हैं लोग
साँसों के सियासत की बहस हो रही ऐसे
अब झूठ को ही सच से बचाने लगे हैं लोग
डरने लगें हैं सुन के अस्पताल लफ़्ज को
बीमार भी फिट ख़ुद को बताने लगे हैं लोग
इंसानियत को पीके कर रहें हैं उल्टियाँ
हैवानियत को ऐसे पचाने लगें हैं लोग
लगता है हवा खाँसती है छींकती घटा
बागों में भी मुखौटे लगाने लगें हैं लोग
..
कुछ भी नही बचा है तिज़ारत की नज़र से
यह जानकर हँसी भी छिपाने लगें हैं लोग
पैसा ही ‘महज़’ साँस ज़माने में आज है
ख़ुदगर्ज़ियाँ यूँ दिल में बसाने लगें हैं लोग