मानव जीवन
द्वेष- विद्वेष ही उर में चलता रहा।
पुण्य जलता रहा पाप छलता रहा।
बालपन दोष से मुक्त था सर्वदा।
हर्ष उल्लास से युक्त था सर्वदा।
देवता नित्य करते हृदय में रमण।
बालमन में न होता कलुष का भ्रमण।
लोभ- लिप्सा रही दूर मन से सदा।
हर्ष से नित्य ही मन मचलता रहा।
पुण्य जलता रहा पाप छलता रहा।।
लोक – परलोक का भान होता नहीं।
पुण्य क्या पाप क्या ध्यान होता नहीं।
था तरुण तन जहाँ भोग ही भोग था।
एषणाये जगीं बस यहीं रोग था।
भृंग मकरंद को देख व्याकुल हुआ।
पान मकरंद का कर बहलता रहा।
पुण्य जलता रहा पाप छलता रहा।।
सत्य क्या झूठ क्या सोचना क्या भला।
है युवाकाल भी तो अजब की बला।
मस्तियों में सदा ही मचलता है मन।
अवतरण क्यों हुआ सोच मिटती गहन।।
दम्भ का सर्वदा वक्ष में बास था।
अग्नि में दर्प के नित्य जलता रहा।
पुण्य जलता रहा पाप छलता रहा।।
स्वप्न भी नित्य दृग में थे जगते नवल।
पंथ में पुष्प केवल बिछे हों कँवल।
धर्म सत्कर्म से दूर होता गया।
पंथ अपने सदा शूल बोता गया।
भावनाएँ हमें नित्य छलने लगीं।
दुर्विचारो का गागर छलकता रहा।
पुण्य जलता रहा पाप छलता रहा।।
क्रमशः
पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’