मानवता परमो धर्म
मैं मेरे दोस्तों के साथ पास के गाँव में शादी में शरीक होने के लिए जा रहा था | पैदल चलने के कारण हमें बहुत जोरो कि प्यास लग गई । इसलिए पास के एक खेत में कुआ देखकर हम वहां ठहर गए | कुए में रस्सी- बाल्टी न होने के कारण हमने पास बने छोटी सी टापरी में आवाज लगाईं जिनका कुआ था |
“अरे भाई साहब कोई है घर में ?”
इतने में एक सज्जन बाहर आये और उन्होंने पूछा …..
“हाँ भई बोलो क्या बात है ?”
मैंने उनसे कहा कि “भाई साब ये जो पास में शादी हो रही है न हम वही जा रहे थे | हमें प्यास लगी थी तो पास में आपका कुआ देखकर पानी पीने के लिए रुक गए |”
“अरे वहां तो नीची जात वालो की शादी हो रही है | दूर रहो, दूर हटो हमारे कुए से नही तो सारा कुए का पानी अशुद्ध हो जायेगा और हमारा धर्म भ्रष्ट होगा सो अलग | भगवान ने जो ऊँच – नीच की सीढ़ी बनाई है न हम भी उससे आबद्ध है क्या करे |”
“अरे ! पर हमारे पानी पीने से आपके कुए का पानी कैसे अशुद्ध हो जाएगा हम तो बाल्टी से पानी बाहर निकालकर पियेंगे न और तुम्हारा धर्म कैसे भ्रष्ट होगा ? क्या मानव धर्म से तुम्हारा धर्म बड़ा है क्या ? और आप इस अन्धविश्वास में मत रहिये कि ऊँच – नीच की सीढ़ी भगवान ने बनाई है, बल्कि ये तो आप और हम जैसे इंसानों ने बनाई है |”
मेरे इन तर्कों को सुनने के बाद वह व्यक्ति निःशब्द हो गया और नतमस्तक होकर विनम्रता पूर्वक कहने लगा कि “वाकई में आपकी बातें सौ आने सही है | “जिस धर्म से मानवता व इसके मूल्य भ्रष्ट हो ऐसे धर्म का भ्रष्ट हो जाना ही उचित है |” इतना कहते ही वह हमारे लिए स्वयं पानी खींचने लगा और हमे एक एक से बारी- बारी पिलाने लगा | अंतरात्मा से बस एक ही आवाज निकल रही थी “मानवता परमो धर्म |”
© गोविन्द उइके