माटी में जब-जब बरसात समाई है
22 +22 +22 +22 +22 +2
माटी में जब-जब बरसात समाई है
मुझको खुशबू तब-तब घर की आई है
गाँव मुझे आवाज़ कहाँ देता है अब
दौलत के पीछे जो नींद गंवाई है
बारिश की कद्र कहाँ की है शहरों ने
गाँवो में काग़ज़ की नाव चलाई है
उर्दू की शान बढ़ाने को देखो फिर
मैंने बज़्म में ग़ालिब की ग़ज़ल गाई है
दुनिया मक़्तल* है, जाना है इक दिन
क़त्ल यहाँ होने को क़िस्मत लाई है
जीते जी हम सब भटक रहे थे यारो
सबने ही तो मरके मंज़िल पाई है
देश की क़ीमत वो ही समझेगा यारो
परदेश में जिसने भी उम्र बिताई है
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*मक़्तल — वध-स्थान। वध-भूमि।