माँ
माँ
व्यवहार जानती थी
कहती थी
बेटी पराया धन है
उसको अपने घर
जाना है
मन दुखता था
पर कुछ कह
नहीं सकती थी
सच तो था
पर स्वीकारते
डरती थी
बहुत याद आता था
वो घर आँगन
पर बार बार
जा नहीं सकती थी
जाती भी तो
अपना सब छोड़
लम्बा रह भी
नहीं सकती थी
सब भूल-भाल
जिनके इर्द गिर्द
जीवन घूमने लगा
वो बच्चे भी व्यवहार
जानते हैं
माँ,करियर ज़रूरी
है ना
अपना भी तो सब
देखना है
तब लगा हमने ये सब
क्यूँ नहीं सीखा
हम अपने को
व्यवहार क्यूँ नहीं
सिखा पाये
तब पीछे मुड़कर
देखने का हौसला
नहीं था
आज आगे बढ़ने की
राह नहीं
पीछे वाले सुखी रहें
आगे वाले ख़ुश रहें
सोते जागते बस,
यही एक
चाह रही
डॉ निशा वाधवा