माँ
माँ
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माँ
तुम्हारे हाथ हिला देने के बाद
अपनी नीव से उखड़ गया मैं
मेरा सफर
और लम्बा हो गया
एक डोर
जो सबको बाँधे थी
ढीली हो गयी
अपनी जमीन पर
खड़ा मैं
पत्तियों-फूलों से विहीन
ठूँठा पेड़ हो गया
माँ
तुम्हारे चले जाने के बाद
एक संस्कृति चली गयी
खिलाकर खाने की
सुलाकर सोने की
दही गुड़ खिलाकर
विदा करने की
गले लगाकर
रो लेने की
माँ
तुम्हारे न रहने पर
सुख गये नीम-पीपल
चिड़िया नहीं उतरती
दाना चुगने
कौवों ने संदेश देना बंद कर दिया
माँ
तुम्हारी जमीन पर
तुलसी के पौधे की जगह
दीवार खड़ी हो गयी है
रिश्तों के बीच
लोक जीवन से
संगीत रूठ गया
रितु गीतों का
सिलसिला टूट गया
—— भोलानाथ कुशवाहा,
बाँकेलाल टंडन की गली,
वासलीगंज,
मिर्जापुर- 231001(उ.प्र.)
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