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21 Sep 2022 · 10 min read

*महाराजा अग्रसेन ( कहानी )*

महाराजा अग्रसेन ( कहानी )
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अग्रोहा के राजमहल में महाराजा अग्रसेन अपने शयनकक्ष में चिंतन की मुद्रा में फर्श पर टहल रहे थे। चिंता उनके माथे से साफ झलक रही थी। वह व्याकुल अवस्था में बार-बार कभी पलंग पर बैठते हैं , कभी आरामकुर्सी पर लेट जाते हैं और कभी फिर टहलने लगते हैं। रह- रहकर उनकी आँखों के सामने यज्ञशाला में बँधे हुए उस घोड़े की आँखों से टपकता हुआ भयमूलक प्रश्न सामने आकर खड़ा हो जाता था। लगता था मानो उनके समूचे साम्राज्य पर उस घोड़े ने प्रश्नचिन्ह लगा दिया हो ।
महाराजा अग्रसेन सोचने लगे कि क्या सचमुच वह घोड़ा मेरी समूची सत्ता पर एक प्रश्न चिन्ह नहीं लगा रहा है ? क्या वह मुझसे नहीं कह रहा है कि महाराजा ! यज्ञ तो आप कर रहे हैं , लेकिन मारा मैं जा रहा हूँ। बताइए, मेरा क्या अपराध है ? महाराजा अग्रसेन सोच विचार में पड़ जाते हैं और कोई उत्तर उनके सामने नहीं सूझ रहा है। सचमुच उस घोड़े की आँखों में आँखें डाल कर जब उन्होंने यज्ञशाला में देखा था तो भय भले ही घोड़े की आँखों में हो ,लेकिन काँप तो महाराज गए थे । अरे ! यह कैसा अपराध मुझसे होने जा रहा है ! क्या मैं इस पशु की बलि ले लूँ ? क्या मैं इसे मार डालूँ ? मेरे राज्य में सब व्यक्ति निर्भय हैं । किसी को अकाल मृत्यु का कोई भय नहीं है। किसी का उत्पीड़न नहीं होता । तब क्या मेरे राज्य में एक घोड़े को अभय का वरदान नहीं प्राप्त है ? महाराजा की इच्छा तो हो रही थी कि भरी सभा में अभी उस घोड़े को अभयदान प्रदान कर दें ,मगर क्या यह इतना आसान था !
सत्रह यज्ञ हो चुके थे । इनमें सत्रह घोड़ों की बलि चढ़ाई जा चुकी थी । सत्रह यज्ञों में सत्रह घोड़ों की बलि चढ़ चुकी थी, सत्रह पशुओं की हत्या यज्ञों में हो चुकी थी ,सोच- सोच कर महाराजा का ह्रदय फटा जा रहा था । उनको लगता था ,जैसे उनके चारों तरफ निर्दोष और निरपराध पशुओं का रक्त बह रहा है और रक्त की एक एक बूँद उनसे यही प्रश्न कर रही है कि महाराज ! यह यज्ञ किस लिए किए जा रहे हैं ? क्या हमें मारने के लिए ?
महाराजा अग्रसेन चिंता में डूबते जा रहे थे । कितना महान अग्रोहा राज्य उन्होंने विकसित किया था ! राज्य में आर्थिक समानता प्राप्त कर ली गई थी और क्यों न की जाती ? एक ईंट, एक रुपए का अद्भुत सिद्धांत महाराजा अग्रसेन ने अपने राज्य में लागू किया हुआ था । अग्रोहा में अगर कोई कुटुंबी दरिद्र हो जाता था तो सारे अग्रोहा निवासी उसकी गरीबी दूर करने के लिए एक रुपया और एक ईंट का सहयोग करते थे। सब अग्रोहावासियों में एक कुटुंब की भावना महाराजा अग्रसेन ने पैदा कर दी थी। अग्रोहा के एक लाख निवासियों से एक लाख रुपए तथा एक लाख ईंटें उस दरिद्र कुटुंबी को सहज ही सहयोग के रूप में प्राप्त हो जाती थीं। एक लाख ईटों से बेघर का घर बन जाता था और एक लाख रपयों से वह दरिद्र हुआ व्यक्ति स्वाबलंबी हो जाता था तथा अपने पैरों पर खड़ा होकर अपना रोजगार कायम कर लेता था । इसलिए अग्रोहा में कोई दरिद्र ही नहीं था। ऐसा सिद्धांत तभी संभव हुआ जब महाराजा अग्रसेन ने समस्त अग्रोहा निवासियों में उदारता की भावना को पैदा किया । महाराजा अग्रसेन चाहते थे कि उनका अग्रोहा एक ऐसा राज्य बन जाए जहाँ सब लोग आपस में अटूट संबंधों में बँधे हुए हों। सब के विचार एक जैसे हों, किसी के साथ कोई भेदभाव न हो । इसी को सोच कर तो उन्होंने अठारह गोत्रों की स्थापना तथा अठारह गोत्र के नामकरण के साथ एक- एक बड़ा भारी यज्ञ करने की योजना बनाई थी। यह अग्रोहा को सामाजिक एकता के पथ पर आगे ले चलने का कार्य था। अब यह अट्ठारहवें यज्ञ का समय आया, तब अचानक बीच में ही घोड़े की हत्या का प्रश्न सामने खड़ा हो गया।
महाराजा अग्रसेन किसी भी हालत में घोड़े की बलि नहीं देना चाहते थे । लेकिन क्या यह इतना आसान होगा ! महाराजा सारी परिस्थितियों पर विचार कर रहे थे। उनका आत्ममंथन चल रहा था । उन्हें भली- भाँति ज्ञात था कि यज्ञ में पशु की बलि अनिवार्य रूप से दी जाती है। यह परंपरा है। और परंपरा न जाने कितनी पुरानी है ! क्या ऐसी परंपरा जिसकी गहरी जड़ें जमी हुई हैं, मैं अनायास उस परंपरा को समाप्त कर सकता हूँ ? क्या विद्रोह नहीं होगा? क्या परंपरावादी मेरे आदेश को मानेंगे?इसी उधेड़बुन में सारी रात महाराजा जागते रहे।
एक राजा को निर्णय लेने में बहुत कुछ सोचना पड़ता है ।महाराजा अग्रसेन को यह तो लग रहा था कि वह एक सही निर्णय ले रहे हैं लेकिन किंतु- परंतु वाली चीजें उन्हें भी परेशान करती थीं। रात बीती । सुबह का सूरज निकला और उधर यज्ञशाला की सारी तैयारियाँ जोर-शोर से शुरू हो गईं। जब महाराजा अग्रसेन निश्चित समय पर यज्ञशाला में नहीं पधारे, तो सुगबुगाहट होने लगी । आखिर क्या कारण है कि महाराजा अग्रसेन अभी तक यज्ञशाला में नहीं आए ? सारे सभासद विचार करने लगे कि महाराजा तो समय के बहुत पाबंद है ! समय- अनुशासन को मानने वाले हैं ।ठीक समय पर हमेशा कार्यक्रमों में उपस्थित होते हैं। आज इतनी देर कैसे हो गई ?
महाराजा अग्रसेन के भाई महाराजा शूरसेन वहाँ उपस्थित थे ।सबने प्रश्नवाचक नेत्रों से उनकी ओर देखा । महाराजा शूरसेन समझ गए । बोले “मैं भाई को लेकर आता हूँँ।”
महाराजा शूरसेन तेज गति से महाराजा अग्रसेन के राजमहल में प्रविष्ट हुए और क्या देखते हैं कि महाराजा अग्रसेन चिंता की मुद्रा में शयनकक्ष में टहल रहे हैं।
“क्या बात है भाई ! आप अभी तक यज्ञशाला में नहीं पधारे ? समय हो चुका है।”
” सच तो यह है भाई ! कि मेरे मन में यज्ञ को लेकर कुछ प्रश्न उपस्थित हो गए हैं । कल मैंने यज्ञशाला में घोड़े को देखा और घोड़े ने मेरी ओर देखा । अनायास मुझे लगा कि मेरे हाथों कितना बड़ा पाप होने जा रहा है। घोड़े की आँखों में भय था और वह मुझसे जीवन की गुहार कर रहा था। उसे देख कर मैं सोचने लगा कि यज्ञ तो हम कर रहे हैं और मारा यह बेचारा घोड़ा जा रहा है। इस बेचारे का क्या कसूर ! वह यज्ञ किस काम का जिसमें एक निरपराध पशु की हत्या की जाती हो ? मैं यज्ञ में पशुबलि का विरोध करता हूँ और अब मेरे राज्य में किसी भी यज्ञ में कोई पशुबलि नहीं होगी।”
महाराजा अग्रसेन ने जिस दृढ़ता के साथ अपने विचारों को व्यक्त किया था, उसे सुनकर उनके भाई महाराजा शूरसेन काँप गए । वह भीतर तक हिल गए । कहने लगे “भ्राता श्री ! यह आप क्या कह रहे हैं ? यज्ञ में पशु- बलि तो परिपाटी है । घोड़े की बलि तो अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है। इसमें अनुचित कैसा ? आप परंपरा का निर्वाह ही तो कर रहे हैं । अपनी ओर से कोई नया कार्य तो नहीं कर रहे हैं ।”
महाराजा अग्रसेन ने भाई शूरसेन के कंधे पर हाथ रखा और कहा “यह परिपाटी मुझे मान्य नहीं है । मैं इस परंपरा का विरोध करता हूँ। मैं यज्ञ के नाम पर पशु की हत्या को समाप्त करने का पक्षधर हूँ। ”
“किंतु भ्राता श्री ! क्या परंपरा आपके आदेश को मान लेगी? परंपरावादी तो आपके निर्णय का विरोध करेंगे और यज्ञ में पशु- बलि की परंपरा इतनी प्राचीन है तथा इसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि मुझे तो भय है कि कहीं आपके राजसिंहासन की जड़ें न हिल जाएँ । कहीं बगावत न हो जाए और तख्तापलट की स्थिति सामने न आ जाए ? मैं यही कहूँगा कि आप ऐसे समय में इस विचार को त्याग दीजिए।”
” मेरे भाई ! वीर की यही तो पहचान है कि वह जिसे सही समझता है और जिस बात को अनुकरणीय मानता है ,उसे जोखिम उठाकर भी लागू करता है । जब मुझे पशु- हिंसा में अमानवीयता की गंध आ रही है तो फिर चाहे मेरा राज्य- सिंहासन रहे या जाए, मैं पशुबलि का विरोध अवश्य करूँगा।”
महाराजा शूरसेन ने अब अपने विचारों को दूसरी प्रकार से व्यक्त करना आरंभ किया । बहुत संयमित तथा शांत स्वर में उन्होंने कहा ” भ्राता श्री ! मैं आपके अहिंसक विचारों को समझ रहा हूँ तथा मैं भी आप ही के सामान पशुबलि का विरोधी हूँ लेकिन अब इस समय जबकि सत्रह यज्ञ पूरे हो चुके हैं तथा अठारहवें यज्ञ का आरंभ हो चुका है, कार्य को बीच में छोड़ना ठीक नहीं रहेगा । अगर आपने यज्ञ में पशु- बलि का विरोध किया तो विवाद होगा और उस विवाद में परंपरावादी लोग यज्ञ को अमान्य कर सकते हैं । ऐसी स्थिति में आपने अठारह यज्ञों के द्वारा तथा अठारह गोत्रों की संरचना और उनके नामकरण के द्वारा अग्रोहा में सब प्रकार के पूर्वाग्रहों को समाप्त करके एक-एक नए गोत्र के साथ समस्त जनता को जोड़ने का जो कार्य किया है, वह बीच में लटक जाएगा । अब तक एक गोत्र के साथ एक यज्ञ हुआ। इस तरह सत्रह यज्ञ हो गए तथा सत्रह गोत्रों में संपूर्ण समाज लगभग शामिल हो चुका है । अब केवल अठारहवें यज्ञ के माध्यम से अठारहवें गोत्र की स्थापना होनी है । उसके पश्चात संपूर्ण अग्रोहा आपस में एक सुगठित अग्रवाल समाज का रूप ले लेगा और सारी दुनिया में अग्रोहा एकमात्र ऐसा राज्य होगा जहाँँ की जनता पूरी तरह एकता के सूत्र में बँधी हुई होगी। लेकिन यह तभी संभव है जब आपके सभी अट्ठारह यज्ञ निर्विघ्न रुप से संपन्न हों।मेरी आपसे हाथ जोड़कर विनती है ,भाई ! आप इस अट्ठारहवें यज्ञ में विवाद न करें और आगे चलकर फिर कभी जब कोई यज्ञ हो तब उसमें पशु- बलि का प्रश्न उठाया जाए।”
” कैसी बातें कर रहे हैं आप ! भला शुभ कार्य को भी टाला जाता है ? उचित निर्णय स्थगित करना उचित है क्या ? मनुष्यता के प्रश्न को हम विस्मृत कर सकते हैं ? मानवता हमसे चीख – चीख कर यह कह रही है कि पशु की हत्या पर प्रतिबंध लगाओ और यज्ञ के नाम पर जो पशु – बलि अब तक होती आ रही है ,उसे आज और अभी इसी समय से बंद कर दो । राजा का धर्म है कि वह प्रजा को उच्च नैतिक मूल्यों की ओर अग्रसर करे। उस पर सब जीव- जंतुओं की रक्षा करने का दायित्व होता है । जरा सोचो , घोड़े में भी वही आत्मा है जो सब मनुष्यों में है। तलवार से सिर काटे जाने पर एक घोड़े को भी उतना ही कष्ट होगा जितना एक मनुष्य को होता है। हम जब इस सत्य को समझ चुके हैं तब असत्य अनाचार और हिंसा को सहमति कैसे दे सकते है?”
महाराजा शूरसेन ने जब यह समझ लिया कि उनके भाई महाराजा अग्रसेन अपने विचारों पर अविचल हैं , तब यह देखकर उन्होंने प्रसन्न होकर कहा ” वाह भाई! मैं आपकी दृढ़ता से बहुत प्रसन्न हूँ। आपने मेरी भी आँखें खोल दीं तथा मुझे भी एक अच्छी राह पर चलने के लिए प्रेरित कर दिया ।अब मैं आपके साथ हूँ और पशु- बलि का मैं भी विरोध कर रहा हूँ। आइए! यज्ञशाला में चला जाए जहाँ आप पशुबलि की प्रथा की समाप्ति की घोषणा करें ।”
फिर क्या था ! एक और एक ग्यारह की कहावत को चरितार्थ करते हुए महाराजा अग्रसेन अपने भाई शूरसेन के साथ यज्ञशाला में पहुँचे तथा अग्रोहा के समस्त समाज को संबोधित करते हुए घोषणा कर दी कि आज से मेरे राज्य अग्रोहा में किसी भी प्रकार की कोई पशुबलि यज्ञ में नहीं दी जाएगी। मेरे राज्य में पशु की हत्या करना दंडनीय अपराध होगा तथा अहिंसा- धर्म का पालन मेरे राज्य के सभी निवासियों द्वारा किया जाएगा । आज से मैं सब जीव जंतुओं की रक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले रहा हूँ। तथा समस्त अग्रोहा निवासी मेरे इस निर्णय को स्वीकार करते हुए उसका पालन करेंगे।”
महाराजा अग्रसेन की घोषणा को सुनकर जहाँ बहुतों की आँखों में चमक आ गई और वह “महाराज की जय हो” तथा “अहिंसा की जय हो” का उद्घोष करने लगे, वहीं दूसरी ओर चारों तरफ शोरगुल होने लगा तथा “महाराजा का निर्णय गलत है “का शोर मचने लगा । अनेक लोग कह रहे थे कि बिना पशुबलि के यज्ञ कैसा ? यज्ञ है तो पशु बलि भी होगी ही। चारों तरफ अफरातफरी मची हुई थी तथा किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि अब राज्य का भविष्य क्या होगा।
महाराजा इस सारे विवाद में बहुत शांत भाव से दृढ़ता के साथ खड़े हुए थे तथा बार-बार अपनी घोषणा को दोहरा रहे थे। प्रजा का बड़ा हिस्सा महाराजा के विचारों को स्वीकार कर रहा था, लेकिन ऐसा जान पड़ता था कि जो परंपरावादी लोग यज्ञ के साथ जुड़े हुए हैं, वह महाराजा की घोषणा को पचा नहीं पा रहे हैं तथा महाराजा के निर्णय का विरोध कर रहे हैं। जनसमूह में भारी विवाद पैदा हो रहा था तथा भगदड़- सी मचने लगी।
इसी बीच यज्ञ से बहुत से लोग उठ खड़े हुए तथा कहने लगे “हम इस यज्ञ को नहीं मानते ।”
महाराजा अग्रसेन ने सब को समझाने का प्रयास किया तथा कहा ” परंपरा होने के कारण ही कोई कार्य सही नहीं हो जाता। पशुहिंसा अनुचित है तथा इसीलिए मैं पशु- हिंसा के विरुद्ध हूँ।”
लेकिन एक वर्ग मानने के लिए तैयार नहीं था ।अंत में वह वर्ग यह कहते हुए उठ कर चला गया कि ” अपनी मनमानी आप जो चाहे कर लो ,लेकिन अब यह यज्ञ किसी भी प्रकार से यज्ञ की श्रेणी में नहीं गिना जाएगा ।”
चारों तरफ एक अजीब सी जहाँ उदासी थी ,वहीं खुशी की लहर भी थी ।उदासी इस अर्थ में थी कि यज्ञ की मान्यता पर प्रश्नचिन्ह लग गया था । खुशी इस कारण थी कि अब यज्ञ के माथे पर लगा हुआ पशुबलि का कलंक पूरी तरह से समाप्त हो रहा था।
महाराजा अग्रसेन ने आकाश की ओर देखा। सूर्य धीरे- धीरे आसमान में ऊपर उठता जा रहा था और उजाला फैल रहा था। इतिहास गवाह है कि परंपरा ने यज्ञ को मान्यता नहीं दी । परंपरा ने महाराजा अग्रसेन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया लेकिन जनता ने महाराजा अग्रसेन के विचारों को स्वीकार किया । महाराजा अग्रसेन ने प्रसन्न होकर कहा कि वास्तव में यह जो अग्रोहा का समाज है, यही मेरा वास्तविक वंशज है तथा यही मेरे विचारों का अनुयायी होने के कारण मुझे अत्यंत प्रिय है। जब तक यह समाज मेरे विचारों पर चलेगा तथा अहिंसा धर्म का पालन करेगा ,मैं इसका पूरी तरह संरक्षण करूँगा तथा सदा- सर्वदा इसके साथ रहूँगा। अठारह गोत्रों में विभक्त अग्रवाल समाज जिसकी संख्या उस समय एक लाख थी , पूरी तरह महाराजा अग्रसेन के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा हुआ था। महाराजा अग्रसेन इस संसार मे एक असाधारण सामाजिक क्राँति का सूत्रपात कर चुके थे । उनके जैसा न पहले कोई हुआ, और न उनके बाद कोई दूसरा हो पाया।
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लेखक : रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99 97 61 545 1

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