पेशावर की मस्जिद में
मस्जिद में आबेदीन तमाम,
फिदायीन हमले के वक्त।
सुर्ख हुई ज़मीं सारी,
कुछ घायल कुछ मर गये।
पेशावर की मस्जिद में तो,
कोई भी न गैर था।
कौम इक थी दीन इक था,
सारे मोमिन थे फ़क़त।
किसने की गुस्ताखी ऐसी,
पता करो कौन है।
मोमिन ने मोमिन को मारा,
या कोई काफिर था वो।
देख कर मंजर वहां का,
क़ल्ब है कुछ ग़मज़दा।
मस्जिद के सारे नमाजी,
बन्दे थे रहमान के।
दुश्मनों का गम हो चाहे,
हो जाते मलूल हम।
शिर्क में तालीम ऐसी,
सब में दिखता नूर इक।
मौला ऐसी कर इनायत,
फिर न हो ये वाकया।
वरना तेरी दर पे आकर,
भी डरेंगे लोग अब।
सतीश सृजन