मरीज और अशिक्षा
गौरव ने अपना
चिकित्सकीय संपूर्ण जीवन दवा, रोग,रोगी पर समर्पित भाव से बिन ऐशोआराम, भौतिक संचय इकट्ठा किये लगाते जा रहे है,
अशिक्षा इतनी प्रभावी है,
मरीज आकर उसे इलाज
बताते हैं, जैसे मुझे इंजेक्शन
लगा दो, ग्लूकोज की बोटल
चढ़ा दो.
इतने पैसे किस बात के.
मैंने कहा दवाई के पैसे जोड लो.
जो कुल जोड़ से, बीस तीस कम
बैठते है.
ऐसे मरीज खुद के हितैषी नहीं.
बिमार होकर मनोबल बनाये रखें.
पैसे की तो हमारे स्तर पर कोई बात ही नहीं है,
गौरव तो ऐसे वर्ताव में जैसे घर का सदस्य हो.
मरीजों के, फिर भी लोग ..न जाने किस चाहत में रहते हैं, सीधे नहीं आते, घूम-फिरकर बिगडने पर. खैर
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ठीक रहेंगे तो *मंदिर जायेंगे.
बिमारी में वैद्य ही परमात्मा है.
चिकित्सक और मरीज के बीच
संवाद ही तय कर देता है.
मरीज अपनी संतुष्टि करने आया है.
या सच में वह पीडित है.
फायदे उठाने आया है.
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निदान यानि मरीज की बिमारी के पहचान के लिए, मरीज के
1.दर्शन
2.प्रश्न
3.स्पर्शन निम्नतम जरूरी है.
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वह जाँच में मदद नहीं करता.
ऐसे रुग्ण व्यक्ति को समझाऐ
न समझ आये, तब छोड़ देना चाहिए.
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ऐसी समस्या परामर्श शुल्क पहले जमा करवा कर देखने वाले, डॉक्टर को नहीं आती.
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पोस्ट लिखने के बाद
पहला मरीज.
कहने लगा.
जी बाव का सूआ लगा दो,
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मैंने बडी अभिलाषा से पूछा कौन-सा भाई.
कहने लगा बाव का
मेरा मतलब नाम बताओ.
इंजेक्शन का.
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कहने लगा डॉक्टर आप हैं
के मैं…
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नहीं नहीं भाई.
मेरा मतलब कुछ समझा नहीं.
आपकी बात को पकड नहीं पाया,
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कहने लगा फेर क्यों दुकान खोले बैठे हो बंद कर दो.
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मैंने कहा मुझे भु दो बच्चे भी हैं.
उनकी तरफ भी देखना पडता है.
इसलिये.
डॉक्टर महेन्द्र सिंह हंस