मन
मन शांत रहे कैसे
जब देखूं अशांत
जन जीवन,
मरघट बन चुका
यह धरती सुनहरी
नहीं कोई दोस्त
ने कोई परिजन;
नजर दौराऊँ जहां तक
पाऊँ हर तरफ मैं
व्यापार घन-सघन,
जीवन हो या मरण
हर जगह हरदम
होती धन की प्रयोजन;
ऐशो-आराम के पीछे भागे
भरता है ऊँची उड़ान,
खिसक रही है पैरों से जमीं
नहीं उस तरफ कोई ध्यान;
नए युग का यह मानवगण
तकनीकी है जिसका मन,
भूल चुके अपनी मानवीय अस्तित्व
भूला सब चाल चलन।