मन
मन
बात हो संग्राम की तब,
मन हमेशा जीत जाता ।
मन हमेशा था सिकंदर,
कौन उससे पार पाता।
वह सिकंदर भी सुनो ,
आराम करना चाहता है।
अब हमारा मन सुनो ,
आराम करना चाहता है।
सड़ रहे रिश्ते यहां पर,
वेदना, अपमान पलते।
जीतता अन्याय है बस
न्याय रोता हाथ मलते।
बाग की कलियां सिसकतीं
और सहमी सी खड़ी हैं।
फूल मुरझाने लगे जो,
मुश्किलें उनकी बड़ी हैं।
आज अपनी जीत भी,
नीलाम करना चाहता है।
अब हमारा मन, सुनो,
आराम करना चाहता है।
स्वर्ग रच देंगे हमीं यह,
कामना मन में रही थी ।
खिल उठेगी यह जमीं,
यह भावना मन में रही थी।
किंतु इस संसार के सब,
ढंग बेढंगे हुए हैं ।
प्यार के बदले यहां बस,
खून के दंगे हुए हैं।
नफरतों को विश्व से,
गुमनाम करना चाहता है।
अब हमारा मन, सुनो ,
आराम करना चाहता है।
इंदु पाराशर