*** ” मन चला क्यों…? मधुशाला की ओर….! ” ***
# : कैसा अज़ब है यह आज का दौर ,
टूट रहा अब सद्भावना की डोर।
बिखरता संबंध , विचलित मन , सिमटता ये प्रेम-बंधन ;
और गुंजता अब , ये अराजकता की शोर ।
मय-मेरा की चाह में ,
दुश्मनी की राह में ।
मित्रता का बंधन तोड़ ,
मेल-मिलाप की राहों को छोड़।
एकाकी की राह पकड़ ,
अपनों के अपनापन से मुख मोड़ ।
हीनता की राहों में जकड़ ,
मन चला क्यों मधुशाला की ओर….?
## : आज मधुवन की चौपाल में ,
बन गया अब मधुशाला।
होती थी जहाँ पहले , भजन-गोविंद-गोपाला ;
ठनकती है अब वहाँ , मधुरस की प्याला।
जपन होती थी जहाँ , सूरों की माला ;
छलकती है अब वहाँ , विषमय की हाला।
मधुशाला है एक ऐसी पाठशाला ,
जहाँ दहकती है हलाहल की ज्वाला ।
बहकती जहाँ , मन की विचार ;
पनपती है जहाँ , पशुता की व्यौहार।
गिरता मानव मूल्यों का आधार ,
जन्म लेती जहाँ , कुसंगत आचार-विचार ।
मिथकता की बाजार में ,
मधुमय की धार में।
मदिरालय की आंगन से मचल ,
उजड़ता अपना हर गाँव-शहर।
विषमता से बढ़ती जीवन-स्तर ,
बिखर गया अब अपना घर-संसार
मधुरस की आहार से ,
बदल गया अपना आदर्श-विचार।
कितने मन के महल ढहे , कितने कंठो के सुर बदले ;
और पंकतल हुए अब सयन-बिस्तर।
कटूता का बनाकर घर ,
विचलित मन की राह पकड़ ;
मन चला क्यों मधुशाला की ओर….?
### : मैंने भी , कुछ मित्रों के संग ;
मधुरस का पान किया।
मधुरस की जाम से ,
बहलता है मन अपना मन कुछ पल के लिए
पर…
बहकता है अपना मन कैसा ;
मैंने भी अब जान लिया।
मधुकलश की शाला में ,
सुंदर एक मधुबाला ने ,
हाला मन की प्याला से ,
रीति सहित सम्मान किया ।
पाकर महक इस रस का ,
मन हुआ अति मतवाला ।
तुतलाती मेरे कंठों से निकला ,
वाह वाह..! क्या श्रेष्ठ जगह है यह मधुशाला।
कह गए कवि , कुल-रीत निभाने वाला(हरिवंशराय बच्चन),
पीने वाला ही जाने ,
मधुरस की आनंद , पीने वाला।
देख बिगड़ता हालात मेरी ,
कहने लगा सारा जग वाला ।
हलाहल की धार में ,
बहक गया अब , अपना गोकुल का प्यारा नंदलाला।
कह गए और… कुछ चिंतन करने वाला ,
मधुरस है गरल हाला।
विस्मित होता हर कोई पीने वाला ,
विकृत कर जाती है यह , अंतर्मन की मृदु पाठशाला
सूर-मन को बहकाती यह हाला ,
असुर मन को जगाती यह मधुशाला।
मधुशाला की जमघट राह जकड़ ,
कुंठित मन की राह पकड़ ,
मन चला क्यों मधुशाला की ओर…?
#### : राजा हो गए रंक ,
इस मधुरस की पान से।
सल्तनत की भी डोर टुट गई ,
इस मधुशाला की क़हर वार से ।
साधु हो या संत , या हो फिर…….
कोई अरिहंत-महंत ;
सब पर लगा कलंक ,
इस मधुकलश की पान से ।
जिसने भी रसपान किया इस हाला की ,
स्वयं ही अपमानित हुआ,
अपनों की अपमान से ।
कहता है ये मधुवन की नंदलाला ,
मन चला क्यों आज मधुशाला…..?
क्या ये विकास का प्रादुर्भाव है..? ,
या मन का तनाव है ।
क्या यह अज्ञानता का प्रभाव है ..? ,
या आधुनिकता का बहाव है ।
क्या यह विकृत मन का स्वभाव है….? ,
या फिर मेल-मिलाप का आभाव है।
क्या इसमें भी …?,
न्यूटन-गुरूत्वीय आकर्षक बल जैसा ,
कोई खिंचाव है।
या इसमें आइंस्टाइन-सापेक्षवाद जैसा ,
कोई प्रभाव है।
क्या इसमें भी..?,
कूलंब-चुम्बकीय शक्ति जैसा ,
कोई आवेशित स्वभाव है।
या फिर….;
चर्वाक-सिद्धांत
” पीओ-पीओ और पीओ ,
जब तक धरातल पर न गिरो ;
क्योंकि पुनर्जन्म फिर से न मिलने वाला है ”
का विवशता जैसे कोई संभाव है ।
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* बी पी पटेल *
बिलासपुर ( छ. ग .)