मन की व्यथा।
मकाम पर नजर गड़ाए बैठे हो।
कर्म पर ध्यान नहीं है कोई।
धनुष टांग कर घूम रहे।
तुनीर में तीर नहीं है कोई।
व्यवस्था साधन सब विधिवत् हो।
तभी फलीभूत होगे कहीं।
राम को जाने नहीं।
जोग रमाए बैठे हो।
बिना मतलब के ही दाढ़ी बढ़ाए बैठे हो।
वस्त्र से ज्यादा साफ तुम्हारा मस्तिष्क देखा जाता है।
खुदा के द्वारा तो यही हर पल परखा जाता है।
भाव तुम्हारे बतलाते है श्रृद्धा तुममें कितनी है।
ज्ञान चक्षु का न द्वार खुला पर वाणी तेरी रमणीय है
आत्मा के तरंग का परमात्मा संग होगा जिस दिन मिलन।
उसी दिन मोक्ष का द्वार खुलेगा होगा तेरा शांत मन।